बिरहना पीर साधना-
यह साधना 40 दिन में सम्पन्न की जाती है।
यह साधना बन्द कमरे में रात्रि 12 बजे से सपन्न की जाती है। कमरा एकांत में होना चाहिये।
साधक रात्रि को मन्त्र जाप करे और पूजन करके उसी कमरे में
सो जाय।
यह साधना ग्रहणकाल में शुरू की जाती है।
कमरे में फर्श दीवारों पर ,आसन, चौकी पर,अपने वस्त्रों पर साधक चमेली का इत्र ,सेंट,परफ्यूम छिड़क ले।
पूर्ण कमरा सुगंधमय हो जाय।
साधक सफेद वस्त्र पहनकर सफेद आसन पर बैठे। रुद्राक्ष माला से जाप करे।
देशी घी,लोबान,बतासे,लौंग की धूप रोजाना साधना काल मे करें।
चमेली की अगरबत्ती,देशी घी का चिराग जलाए।
चमेली के फूल चढ़ाए।
देशी घी में बने हलवे का भोग लगाय, सफेद मिठाई शुद्ध मावे की रखे।
2 फल रखे।
साधक अपने शरीर का पवित्रीकरण करे।
सामग्री का पवित्रीकरण करे।
वास्तुदोष पूजन करे।
साधना के अंतिम दिन विरहना पीर (वीर)साधक को दर्शन देते है और अपने साधक को वचन देते है।ऊपरी चक्कर,भूत प्रेतों आदि की समस्याओं का समाधान पलभर में कर देते है।
यह भी विष्णु जी की शक्ति से कार्य करते है।
भोजन में साधक को 2 समय करना चाहिए।
हरी सब्जियां,दालें,रोटी चावल,मिठाई,फलों का सेवन करें।
दिशा पश्चिम होनी चाहिये।
मंत्र----
पीर विरहना
फूल विरहना
धुँ धुँकार सवा सेर का तोसा
वाय अस्सी कोस का धावा करे।
सात सौ कुन्तक आगे चले
सात सौ कुन्तक पीछे चले
छप्पन सौ छुरी चले
बावन सौ वीर चले
जिसमे गढ़ गजनी का पीर चले
और कि भुजा उखाड़ता चले
अपनी भुजा टेकता चले
सुते को जगवता चले
बैठे को उठावता चले
हाथों में हथकड़ी गैरे
पैरों में पैर कड़ा गैरे
हलाल माही दीठ करे
मुरदार माही पीठ करे
बलवान नबी को याद करे।
ॐ नमः ठह ठह स्वाहा।
गुरुदेव अशोक कुमार चन्द्रा हरिद्वार उत्तराखण्ड
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